हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) "सहीफ़ा सज्जादिया" में अल्लाह को इस तरह संबोधित करते है:
اَللَّهُمَّ إِنْ تَشَأْ تَعْفُ عَنَّا فَبِفَضْلِکَ وَ إِنْ تَشَأْ تُعَذِّبْنَا فَبِعَدْلِکَ अल्लाहुम्मा इन तशअतअफ़ो अन्ना फ़बेफ़ज़लेका व इन तशाअ तोअज़्ज़िबना फ़बेअदलेका 1
"ऐ अल्लाह! अगर तू चाहे तो हमें माफ़ कर दे, तो यह तेरे फ़ज़्ल से है, और अगर तू चाहे कि हमें सज़ा दे, तो यह तेरे इंसाफ़ से है।"
शरह
इमाम सज्जाद (अ) ने इसी बात को अपनी दुआ नंबर 45 में भी कहा है।
اللَّهُمَّ ... عَفْوُک تَفَضُّلٌ، وَ عُقُوبَتُک عَدْلٌ अल्लाहुम्मा --- अफ़्वोका तफ़ज़्ज़ोलुन, व उक़ूबतोका अदलुन 2
ऐ अल्लाह! तेरा माफ़ करना तेरा फ़ज़्ल है, और तेरी सज़ा देना तेरे इंसाफ़ पर आधारित है।
इसलिए, इमाम (अ) फ़रमाते हैं कि माफ़ी अल्लाह के फ़ज़्ल व करम की वजह से होती है, न कि इंसान की अपनी कोई खास योग्यता या हक़ के कारण। जबकि सज़ा अल्लाह के न्याय और इंसान के उसके लायक़ होने से जुड़ी होती है।
सवाल:
क्या सच में इंसान के पास खुद से अल्लाह से माफ़ी पाने की कोई काबिलियत या हक़ नही होता ?
इसे बेहतर समझने के लिए, इमाम सज्जाद (अ) की एक दुआ "मुनाजात अल-आरेफ़ीन" का एक हिस्सा देखते हैं, जिसमें वे अल्लाह से ऐसे बात करते हैं:
إِلٰهِی قَصُرَتِ الْأَلْسُنُ عَنْ بُلُوغِ ثَنائِکَ کَما یَلِیقُ بِجَلالِکَ इलाही क़सोरतिल अलसोनो अन बुलूग़े सनाएका कमा यलीक़ो बेजलालेका
ऐ अल्लाह ! ज़ुबानें तेरी तारीफ को उस तरह से बयान करने में असमर्थ हैं जो तेरी महानता के लायक़ हो।
इस बात के अनुसार, भले ही हम इबादत करने वाले हों, लेकिन सच यह है कि हमारी इबादतें उस अल्लाह तआला की महिमा और जलाल के योग्य नहीं हैं। इसका मतलब है कि हम अल्लाह की बंदगी का सही हक़ नहीं दे सकते जैसा कि वह हक़दार है। इसलिए, अल्लाह की तरफ़ से हमारी माफी और बख्शिश उसकी मेहरबानी (फ़ज़्ल) है।
इसलिए, सय्यदुश-शोहदा (इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम) ने अपनी खूबसूरत दुआ "दुआ-ए-अरफ़ा" में अल्लाह तआला को इस तरह संबोधित किया है:
إِلَهِی مَنْ کَانَتْ مَحَاسِنُهُ مَسَاوِیَ فَکَیْفَ لَا تَکُونُ مَسَاوِیهِ مَسَاوِیَ इलाही मन कानत महासेनहू मसावीया फ़कैयफ़ा ला तकूनो मसावीहे मसावीया 3
ऐ अल्लाह! जो कोई अपनी खूबियों और अच्छाइयों के बावजूद भी (खुदा के कमाल के सामने) कमज़ोर और खराब समझा जाता है, तो फिर उसकी कमियाँ और बुराइयाँ कैसे कमज़ोरी और दोष न होंगी?
यह बात इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के शब्दों में कही गई है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे (अलैहिस्सलाम) खुद किसी तरह की कमी या दोष रखते थे। बल्कि उनका मकसद यह है कि:
یَا مَنْ أَلْبَسَ أَوْلِیَاءَهُ مَلاَبِسَ هَیْبَتِهِ فَقَامُوا بَیْنَ یَدَیْهِ مُسْتَغْفِرِینَ या मन अलबसा औलेयाअहू मलाबेसा हैबतेही फ़क़ामू बैना यदैयहे मुस्तग़फ़ेरीना 4
हे उस खुदा जो अपने जलाल और महानता के दर्शन से अपने वली (पैग़ंबरों और नेक लोगों) को तेरे सामने तौबा करते हुए खड़ा देखता है।
यह तरह का बयान मासूमों (अलैहिमुस्सलाम) के शब्दों में इस वजह से आता है कि वे खुद को अल्लाह की महानता और जलाल में पूरी तरह डूबा हुआ महसूस करते हैं। जो कोई इस मक़ाम पर पहुँच जाता है, वह खुद को और अपने सारे कामों और इबादतों को कुछ भी नहीं समझता, क्योंकि वह हमेशा खुद को अल्लाह की हाज़िरी में महसूस करता है।
इसलिए, अल्लाह की माफी उसकी मेहरबानी (फ़ज़्ल) का निशान है, न कि हमारी काबिलियत या हक़।
हवाला:
1- सहीफ़ा सज्जादिया, दसवीं दुआ
2- "फ़ज़्ल का मतलब है हक़ से ज़्यादा और अपेक्षा से ऊपर देना।" (तालेक़ानी, महमूद, "परतौ-ए-कुरआन", पेज 236)
3- दुआ-ए-अरफ़ा
4- कुल्लियात-ए-मफ़ातीहुल जनान
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